रुबिका के दायरे - भाग 1 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रुबिका के दायरे - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

“यह तो चाँस की बात थी कि शाहीन बाग़ साज़िश में हम-दोनों जेल जाने से बच गई और टाइम रहते अबॉर्शन करवा लिया, नहीं तो हम भी आज आरफा जरगर की तरह किसी अनाम बाप के बच्चे को लेकर दुनिया से मुँह छुपाती फिर रही होती। आज कौन है जो आरफा को मदद कर रहा है। मदद के नाम पर भी उस बेचारी को अपनों ने ही ठगा।

कहने को वह ख़ानदान का ही लड़का था, बड़े तपाक से सामने आया कि बच्चे को मैं दूँगा अपना नाम। झट से निकाह कर लिया, साल भर यूज़ किया, उसके प्रेग्नेंट होते ही व्हाट्सएप पर तलाक़ देकर भाग गया धोखेबाज़। ये तो अच्छा हुआ कि उसने बिना किसी हिचक ज़रा भी देर नहीं की और तुरंत ही प्रेग्नेंसी अबॉर्ट करवा दी नहीं तो एक और बच्चे को ढो रही होती। पहले बेवक़ूफ़ी, फिर धोखे से मिले ज़ख़्म से उसके ऊपर क्या बीत रही है, कौन जाकर उससे कभी पूछता है।

मैंने तो उसी समय ऐसे फ़ालतू और पूरी तरह से ग़लत कामों से तौबा कर ली थी हमेशा के लिए, जब उसे जेल की सलाखों से सिर टकराते, मजबूर, आँसुओं से जेल की कोठरी भिगोते देखा था। जल्दी ही लॉक-डाउन के चलते उससे मुलाक़ात बंद हो गई। लेकिन जो बातें सुनती थी, उससे मेरा दिल दहल उठता था।

यह सोचकर ही मैं पसीने से भीग जाती थी कि दिन-भर घूमने-फिरने, लाइफ़ एन्जॉय करने वाली आरफा कैसी बेचैनी, तकलीफ़ महसूस कर रही होगी, अपने पेट में एक ऐसे बच्चे को बढ़ते हुए महसूस करके, जिसका वालिद कौन है, ख़ुद उसे भी पता नहीं है।

इसलिए महबूबा मुझे तो माफ़ करो, मैं अब किसी आंदोलन-फान्दोलन के चक्कर में अपने को फँसाने वाली नहीं। इन्हीं बेवुक़ूफ़ियों की वजह से पहले ही अपना कैरियर, अपना जीवन तबाह कर लिया है, अब जो थोड़ा बहुत बचा है, उसमें भी आग लगाने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। इसलिए अब ऐसी किसी बात के लिए मुझसे कोई उम्मीद नहीं रखो, मैं यह सब बिल्कुल भी करने वाली नहीं।”

रूबिका की बातों ने महबूबा को झकझोर ही नहीं दिया, बल्कि जनवरी की कड़ाके की ठण्ड में भी कमरे का माहौल एकदम से गरमा दिया। महबूबा आश्चर्य-मिश्रित बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी आँखों में देखती हुई बोली, “रुबिका तुम्हें क्या हो गया है? तुम यह क्या कह रही हो? यह कोई आंदोलन-फान्दोलन नहीं बल्कि अपने मज़हब, क़ौम की भलाई की बात है, क़ौम के साथ हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात है, हम अगर अपने मज़हब, क़ौम के साथ नहीं खड़े होंगे, तो इससे बड़ा गुनाह और कुछ नहीं होगा। हम तो मुसलमान हैं, हमें इस तरह तो ख़्वाबों में भी नहीं सोचना चाहिए।

“आरफा के साथ तो बस बदक़िस्मती से यह सब हो गया, नहीं तो जैसे तुम और हम बच गए थे, वैसे ही वह भी बच गई थी। बाद में पुलिस ने पता नहीं कहाँ से सब पता कर लिया और उसे पकड़ ले गई। बदक़िस्मती उसकी यह भी रही कि उसी समय लॉक-डाउन लग गया, सारी क़ानूनी कार्रवाइयाँ ठप पड़ गईं, नहीं तो ज़मानत मिल जाती या अबॉर्शन के लिए ही टाइम दे दिया जाता।

“इसलिए किसी एक घटना को लेकर अपना नज़रिया ऐसे नहीं बदलना चाहिए। चाहे जो भी हो जाए, हमें आँख मूँद कर अपने मज़हब, अपनी क़ौम के लिए हमेशा ही खड़े रहना चाहिए, किसी तरह के सवालात करने क्या उस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

“फिर प्रेग्नेंसी की प्रॉब्लम तो हमारी ही बेवुक़ूफ़ियों के चलते हुई थी। हमीं लोग आंदोलन की आवाज़ बुलंद करने के साथ-साथ वहाँ हॉस्टल वाली एन्जॉयमेंट के फेर में पड़ गए थे। आंदोलन में भीड़ बनी रहे इसके लिए वहाँ शराब, ड्रग्स, सेक्स, पैसा हर तरह की व्यवस्था थी ही, हमीं लोग जोश में होश खोती रही, उसी व्यवस्था का हिस्सा बनती गई, ऐसे में जो हो सकता है, हमारे साथ वही हुआ। ज़िम्मेदार हमीं हैं।”

“जो भी हो महबूबा, मैंने तौबा कर ली है, तो कर ली। इसलिए मुझसे कुछ नहीं कहो, ठीक है।”

“रूबिका पहले बात तो पूरी सुनो, प्रोफ़ेसर सईद ने कल ही अपने घर पर मीटिंग में कहा है कि ‘जैसे भी हो हमें हमेशा की तरह एकजुट होकर अपने लिए, क़ौम के लिए हर हाल में आगे आना होगा। जैसे हमने ऐन‍आरसी, सीए‍ए मामलों में सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी, वैसे ही हल्द्वानी के अपने भाइयों के लिए भी अपनी ताक़त दिखानी ही होगी।

‘ये माना कि हमारे ऑर्गनाइज़ेशन को देश-द्रोही गतिविधियों के आरोप में बैन कर दिया गया है, मेन लोग जेल में हैं। लेकिन बाक़ी सारे लोग तो बाहर हैं, आज़ाद हैं। स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िसों सहित बाक़ी जिस भी जगह, जो जहाँ है, वो वहाँ से ही अपना काम करता रहे।’ रुबिका उन्होंने सभी से दरख्वास्त की है कि सभी लोग जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, इकट्ठा हों और हल्द्वानी के भाइयों के लिए सड़कों पर उतरें।”

“देखो महबूबा मुझे हक़ीक़त देखने, समझने की समझ तो है ही और सब-कुछ समझते हुए भी, यदि हम अनदेखी करते हुए काम करेंगे न, तो आरफा से भी ज़्यादा मुसीबत में पड़ जाएँगे। हमें इस मुग़ालते से बाहर आ जाना चाहिए कि सीए‍ए, ऐन‍आरसी आदि मामलों में हमने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी थी।

“वास्तव में सरकार ने जिसे हम शाहीन बाग़ मूवमेंट कहते हैं, उसे अपनी रणनीति से अपने पक्ष में यूज़ कर लिया और हम ख़ुद ही अपनी पीठ ठोक-ठोक कर ख़ुश होते चले आ रहे हैं। सरकार ने जानबूझ कर हमें वहाँ से हटाने की कोशिश नहीं की। हमें इतना लम्बा रास्ता देती गई कि हम ठीक से समझे बिना चलते गए और फिर थक कर पस्त हो गए, बैठ गए। ऐसा माहौल बन गया कि उसके बाद हो रहे चुनाव दर चुनाव वह जीतती ही जा रही है। वह काम वही कर रही है, जो वह करना चाहती है।

“हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिस देश में रहते हैं, वहाँ के नियम-क़ायदे तो मानने ही पड़ेंगे। यह कब-तक मज़हब और क़ौम के नाम पर कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बने, भटकते हुए, अपने ही हाथों अपने जीवन में आग लगाते रहेंगे।

“तुम यह क्यों नहीं सोचती कि हम लोग यदि बहकावे में आकर एकदम लास्ट स्टेज में चल रही अपनी पढ़ाई छोड़-छाड़ कर शाहीन बाग़ साज़िश से नहीं जुड़ते तो आज मैं और तुम किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर होतीं और आरफा जरगर किसी हॉस्पिटल में डॉक्टर। साज़िश में शामिल होकर हम न इधर के रहे, न उधर के।

“घर वाले भी उस समय तो बड़े ख़ुश थे, बड़ी शान सबको बताते घूम रहे थे कि मैं क़ौम के लिए सड़क पर आंदोलन में जी-जान से जुटी हुई हूँ। रिश्तेदार बाक़ी दोस्त भी वाह-वाह करते थे। अब जब कहीं की नहीं रही तो कोई भी दिखाई नहीं देता। घर में भी सभी का मुँह मुझे देखकर लटक जाता है। तुम्हारे साथ क्या हो रहा है, मैं नहीं जानती।

“इसलिए मैं फिर कह रही हूँ कि मुझे बख़्श दो, अब मैं बात चाहे मज़हब की हो या क़ौम की, मैं किसी आंदोलन-वान्दोलन में नहीं जाने वाली। आंदोलन करवाने वाले तो एसी कमरों में बैठ कर अपनी-अपनी दुकानें चलाते हैं, राजनीति चमकाते हैं, उनके ख़जाने भरते रहते हैं, पुलिस की लाठी-गोली, मुक़द्दमे हम तुम जैसे लोग झेलते हैं, बर्बाद होते हैं, दूसरी तरफ़ क़ानून, सरकार अपना काम अपने हिसाब से करके ही रहती है। यह सब जानते-समझते हुए हम-लोग क्यों बेवजह अपने को खंदक में डालें।

“तुमसे भी कहती हूँ, छोड़ो इन सब बातों को। तुम्हारा हमारा कैरियर इन लोगों के बहकावे में आकर बर्बाद हो गया है। वाहवाही के चक्कर में बेवजह के मुक़द्दमों में फँस गए हैं। इतने दिन हो गए, हमारे तुम्हारे लिए प्रोफ़ेसर सईद ने आज तक क्या कर दिया, आगे भी क्या कर देंगे।

“जब-तक शाहीन बाग़ की आग जलाए रखनी थी, तब-तक तो उठते-बैठते नाक में दम किए रहते थे। उसके बाद न तो हमारे मुक़द्दमों की कोई खोज-ख़बर, न ही हमारी थीसिस की। हमें चवन्नी-अठन्नी देकर सारे पैसे अकेले डकारते रहते हैं। मुझे नफ़रत हो गई है उनसे।”

बड़ी तल्ख़ी के साथ अपनी बात कहती हुई रुबिका सोच रही थी, महबूबा अब आंदोलन-फान्दोलन का नाम लेने के बजाय चुप-चाप चली जाएगी, लेकिन वह उसकी उम्मीदों के उलट आगे ऐसे बोलने लगी जैसे वहाँ कोई बात हुई ही नहीं।

उसने बड़ी गंभीरता से कहा, “रूबिका, सईद साहब को तुमसे बहुत ज़्यादा उम्मीद है। उन्होंने मुझसे बहुत ज़ोर देकर कहा कि ‘महबूबा वह तुम्हारी बात मानती है। तुम उसे समझाओ कि अब ज़्यादा समय नहीं बचा है, सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि वह कार्रवाई पर रोक नहीं लगा रहा। मतलब कि सरकार को खुला रास्ता दे दिया है कार्पेट बिछा कर कि आप जिस तरह चाहें, अपने मक़सद को पूरा करने के लिए उस तरह आगे बढ़ें। और सरकार जिस तरह आगे बढ़ रही है, उससे साफ़ दिख रहा है कि वह जल्दी से जल्दी मक़सद पूरा करने की फ़िराक़ में है। इसलिए हमें भी उनकी स्पीड से ज़्यादा तेज़ शाहीन बाग़ से भी बड़ा शाहीन बाग़़ वहाँ खड़ा करना है। समय कम है, इसलिए सब को जल्दी से जल्दी सामने आना ही होगा।’

“रूबिका सिर्फ़ उन्हें ही नहीं, मुझे भी तुमसे बहुत उम्मीद है, इसलिए पहले मेरी बात सुनो, मुझे पूरा यक़ीन है कि जब तुम बात को समझ लोगी तो बीती सारी बातें भूल कर पहले से भी ज़्यादा जोश के साथ आगे बढ़ोगी। तुम्हें मज़हब का, क़ौम का वास्ता देती हूँ, कि केवल अपने बारे में सोचने से पहले मज़हब, क़ौम के बारे में सोचो, मेरी बात को सुनो।”